भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखने का बोलना / लीलाधर जगूड़ी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:38, 5 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी }} {{KKCatKavita}} <poem> आँखों के देखे हुए को …)
आँखों के देखे हुए को बताने के लिए
ज़ुबान को खोलने पड़ते हैं भाषा के ताले
देखना भी बोलने लगता है
अनुभूति का यह खेल अजब है
बातों ही बातों में पंक्ति दर पंक्ति बन जाती है
शब्दों की
कई-कई आँखें दिखने लगती हैं
कई-कई निगाहों के साथ ।