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पुनर्रचनाएँ / मंगलेश डबराल

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रचनाकार: मंगलेश डबराल

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(ये कविताएँ पहाड़ के दूर दराज़ क्षेत्रों के ऎसे लोकगीतों से प्रेरित हैं जिन्हें लोकक्विताएँ कहना ज़्यादा सही होगा पर ये उनके अनुवाद नहीं हैं । )


1.

तुम्हें कहीं खोजना असंभव था

तुम्हारा कहीं मिलना असंभव था

तुम दरअसल कहीं नहीं थीं

न घर के अँधेरे में

न किसी रास्ते पर जाती हुईं


तुम न गीत में थीं

न उअस आवाज़ में जो उसे गाती है

न उन आँखों में

जो सिर्फ़ किन्हीं दूसरी आँखों का प्रतिबिंब हैं

तुम उन देहों में नहीं थीं

जो कपड़ों से लदी होती हैं

और निर्वस्त्र होकर डरावनी दिखती हैं

तुम उस बारिश में भी नहीं थीं

जो खिड़की के बाहर दिखाई देती है

निरंतर गिरती हुई


2.


मैंने देखे दो या तीन रंग

मैंने देखी हल्की सी रोशनी

जो लगातार

पैदा होती थी

मैंने देखी एक आत्मा

जो काँपती साँस लेती थी

मैंने देखा तुम आती थीं

मेरे ही स्पर्शों में से निकलकर


इस तरह मैंने तुम्हारी कल्पना की

ताकि दुख से उबरने के लिए

प्रार्थनाएँ न करनी पड़ें

मैंने तुम्हारी कल्पना की

ताकि नींद के लिए

अँधेरे की कामना न करनी पड़े


मैंने तुम्हारी कल्पना की

ताकि तुम्हें देखने के लिए

फिर से कल्पना न करनी पड़े ।


3.


4. 5. 6. 7. 8. 9, 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16.