भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एकात्म / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:37, 10 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुमार शुक्ल |संग्रह=कभी तो खुलें कपाट / दि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मजे में दिन
गिलहरी बन
कुतरता
धूप की चादर

और रात
सीपी की तरह
खुलकर
एकाएक बन्द हो जाती

याद आती
सुबह की दमखम
कि जब छायाएं
सबसे ज्यादा
लम्बी हो के
धरती नाप लेना चाहती हैं

किन्तु यह दमखम
ज़रा-सी
फुलझड़ी बन
चार पल में
खत्म हो जाती

आग जलती रहे
इसके लिये
ईंधन चाहिये --

जब कि
अपने वर्ग से
हम पूर्ण एकाकार हो जाएं --
जैसे मीन
पानी में
जैसे शब्द
वाणी में

तभी संभव है
हमारी कल्पनाएं
धारणाएं
और कविताएं
कुछ कर दिखाएं।