Last modified on 10 फ़रवरी 2011, at 17:38

पहाड़ की रात बरसाती / दिनेश कुमार शुक्ल

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:38, 10 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुमार शुक्ल |संग्रह=कभी तो खुलें कपाट / दि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ढाल से लुढ़कता है
एक ख़याल -
रात फिसलन भरी
हरी
गहराइयों की
कोख में
छुपे हैं सवाल

ढाल से लुढ़कता
है एक खयाल

छुपे हैं सवाल
और
गढ़वाली गीतों की
रोशनी के टुकड़े
उन्हें खोजते हैं
जैसे खोजते हैं बच्चे
खोई हुई गेंद

बारिश के पर्दे
तड़पते हैं जोर-जोर
शोर-शोर
शोर में डूबे हैं
पहाड़--
ओढ़े हुए
भेड़ों की खाल

ढाल
ढाल से लुढ़कता है
एक खयाल
आत्मायें
जुगुनू-सी
इधर-उधर उड़ती हैं
उड़ती हैं
उड़ती हैं चिन्दियाँ
अँधेरे की
देवदारु
धरती का उर्वर आक्रोश,
ऊपर
और ऊपर
उठाता है अपने हाथ
और
आकाश में
नाचती तड़ित की
हिम्मत टटोलता है।