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बरबस / दिनेश कुमार शुक्ल
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जब बरबस ही रसधार बहे
जब निराधार ही चढे़ बेल
बिन बादर की जब झड़ी लगे
बिन जल के हंसा करे केलि
तब जानों वह पल आन पड़ा
जिस पल अपलक रह जाना है
अब मिलना और बिछुड़ना क्या
भर अंक में अंक समाना है
और आँख खुली रह जाना है