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प्रयोगशाला में / दिनेश कुमार शुक्ल

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अमूमन दुपहर के बाद वाले घंटों में ही
प्रैक्टिकल की कक्षाएँ लगती हैं
जब दिन बह रहा होता है अनमनी मटमैली मन्थर
नदी-सा

लेकिन प्रयोगशाला में घुसते ही
ओजोन, बिजली और स्प्रिटलैम्प की सुगन्ध में
नदारद हो जाती हैं नींद की जमुहाई
और शरारत भर जाती है बॉडी में-
कई मौलिक आविष्कार ऐसे ही शरारतन हो गये...
लेन्स, चुम्बक, मैग्निमीटर और तमाम दूसरे उपकरण
बाहर फैली बेकारी की छाया भी नहीं पड़ने देते
जब तक चलता है प्रैक्टिकल क्लास

थोड़ा-थोड़ा घर घुस आता है प्रयोगशाला में
वहीं कोने में फ्लास्क में उबलती रहती है
अध्यापकों की चाय और वे लगते हैं ज़्यादा निकट
कभी-कभी अचानक ही प्रकट होते हैं
निकिल कोबाल्ट लोहे के हरे नीले लाल गाढ़े रंग
माँ की तहा कर धरी हुई साड़ियों की याद दिलाते,
कभी अमरूद-सी कभी खटमलों-सी फार्मेल्डिहाइड
की गन्ध
भर देती पूरे वातावरण को, तीखी गैस
आँखों में पानी भर आता
और ऐसे में ही कभी-कभी आँखें उलझ जातीं और फिर
उलझती चली जातीं जीवन भर...

प्रयोगशालाएँ यों भी अच्छी लगतीं कि उनके बाद
फिर और कक्षाएँ नहीं होती थीं-
सामने फैला खुला मैदान खेलों का
प्रयोगशाला का बड़ा-सा हॉल उनकी भी आज़ादी का
आँगन था
जिन्हें कॉलेज के बाद
रास्ते की फ़िक़रेबाज़ियों में भीगते हुए वापस घर लौटना था
और घर पहुँचकर फिर ख़ातून-ए-ख़ाना बन जाना होता था...

फिर भी प्रयोगशाला की याद
अक़सर सालों बाद रसोई में सूखते होंठों पर
आकर फैल जाती थी अकारण मुस्कान-सी