भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जल का महल / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:23, 11 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुमार शुक्ल |संग्रह=आखर अरथ / दिनेश कुमार …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाना कहीं न था
वहॉं टिकना भी नहीं था
शायद पड़ाव थी वो जगह
हम जहॉं के थे,
जगते तो स्वप्न देखते
सोते तो जागते
हॅंसते तो बिखर जाते
हम ऐसे दिनों के थे

गठरी में धूप-छाँव पाप-पुण्य बाँधकर
तकिया लगा के नींद में हम तैरते थे ख़ूब
पानी की सेज थी महल भी पानी का
पानी की कथाओं में शोर पानी का
पानी में बन्द था पानी
पानी में झाग जैसी आग
फिर भी सब कुछ थमा थमा-सा था,
इतना गाढ़ा था नींद का पानी
कहीं बहाव खलबली लहर का नाम नहीं
सवाल उठते भी तो कुछ ऐसे
जैसे पत्थर पे खुदी हों लहरें

अभी पौ फटने को थी
रात की चादर में ढॅंकी थी दुनिया
अभी पूरब में बहुत नीचे कहीं था सूरज
सिरहने गठरी में देखा
तो भरा था गेंहुवन !

पछाड़ खा के गिरा जल का महल
जल की वो अचल दुनिया
रेंगती धारें हज़ारों ज़हर की फूट चलीं
और जब निकला नया दिन
तो धूप में कुछ-कुछ
नीम की पत्तियों के स्वाद की हरारत थी