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बोझिल राग / दिनेश कुमार शुक्ल

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भले साधे न सधे लय फिर भी
वो उठाता है वही बोझिल राग
फाग के बोल पकड़ते हैं आग
दुखों की जब भी हवा आती है
पूर्णिमा का घना अॅंधेरा है
अधबुझी राख की तरह बेचैन
जिसमें रह-रह के टिमटिमाता है
जगती आँखों-सा अनोखा ये राग
चॉंदनी की ढलान का पानी
छपाछप तोड़ता है रात के कगारों को !

उधर सुनसान बगीची में चल रहा है रास
कभी भूतों का कभी परियों का
हवा की रंग बिरंगी कनात के भीतर
कोई बादल पे थाप देता है
गैसबत्ती की सनसनाहट में
गूँगे गायक की बेकली-सी है
रोशनी खा रही है कीट-पतंग
उठ रही है चिराँध की दुर्गन्ध
छा रहा है अजब-अजब-सा डर
और मितली-सी आ रही है ऊब
फिर भी उठने को जी नहीं करता
एक नाटक अभी शुरू होगा

हमने देखा है इसे कितनी बार
इस कथा का न कोई ओर न छोर
अर्थ इसका सदा अबूझ रहा
जानता हूँ सभी किरदारों को
फिर भी उनको न मैं सका पहचान
जब भी वो ज़िन्दगी में मेरे साथ-साथ चले

इसी नाटक का एक टुकड़ा अभी
छूटकर पटकथा के हाथों से
छिटक के दूर जा गिरा है कहीं
किसी चौराहे पे मजमे में घिरा
खोलता है वो कथानक की पोल-
न कहीं भूत हैं न राग है न परियाँ हैं
न कोई फाग कोई आग कहीं कुछ भी नहीं,
गाय के खुर में जा छुपा है चॉंद
सनसनी घुस के उसी मजमे में
बो रही है नये ज़हर के बीज,
सफ़ेद सूखे बादलों का घेरा-सा
चॉंद को घेरता है ग़ुस्से में
ऐसे में पहले कहा जाता था
अबकी बरसात बहुत कम होगी

दुनिया के सारे कलावन्त इन्हीं वक़्तों में
अपने वक़्तों में डूब जाते हैं
और चुपचाप कहीं गहरे में
वो जगाते हैं फिर नया-सा राग
जिसमें लय है मगर आवाज़ नहीं,
राग के बोल फूटते हैं तभी
लोग ही जब उन्हें देते आवाज़ !