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कितने दिन / दिनेश कुमार शुक्ल
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चुप की चादर तान चैन से
अब तुम कितने दिन सो लोगे
अनुभव के पार के अर्थ जब आएँगे
उनको किस युक्ति कहो खोलोगे ?
ऐसे भी क्षण होंगे जब वाणी
आभ्यन्तर में ही खो जाएगी
हाथों से रह-रह कर छूटेंगे छोर
गहरे पाताल के मौन में
तब तुम क्या बोलोगे ?
अपनी ही दृष्टि के सत्य का बियाबान
कभी तो आएगा,
होगे तब निपट अकेले तुम-
सत्य का पहाड़ क्या अपने ही बूते पर
ढो लोगे ?
खॉंईं विषमता की गहराती जाती है
बढ़ती हैं दूरियाँ
खिंच कर अब टूट रही है डोरी
छूट रहे हैं अपने उस पार-
कितने दिन इस मायानगरी के हो लोगे ?
आएँगे सुख हॅंस लोगे, दुख में रो लोगे
पीपल के पात बने हवा के साथ-साथ
कितने दिन डोलोगे ?
जिस पानी में सबने धोया अपना कर्दम
क्या अपने रंग अब उसी में घॅंघोलोगे ?