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एक दिन / दिनेश कुमार शुक्ल

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इक्कीसवीं शताब्दी के एक दिन
हुआ यह कि
सनातन सत्य का एक पुर्जा
टूट कर गिरा पहले
फिर घरघराहट हुई
और सनातन सत्य का
अच्छा ख़ासा हिस्सा
ढह कर गिरा और
जाने कहाँ विलीन हो गया

धरती ज़रा देर को दिखी
आधे छुपे पेय जल के सोते
हरी गहरी घाटियाँ
चट्टानें
गन्ने के खेतों में छुपी आवाज़ें
आँखों पर उभरीं और
फिर बह गयीं

आमों की याद, अमराई की छाया,
विलाप सर्पदंश की पीड़ा में
कलछता हुआ
बिजली की चमक में नहाते
मोटे-मोटे नाग
मोटी काली शाखाएँ

तीन मील लम्बी तलवार
पृथ्वी आकाश जल थल को
काटती हुई,
हत्यारी शक्तियों की
गहरी पैठ
जैसे जोंक धँस गयी हो
दिमाग़ में...

अमरबेल पेड़ों को चूसती हुई
मृत्यु देती और लेती अमरत्व
पीली सुनहरी कभी-कभी हरी भी
अमरबेल
पेड़ों के ऊपर-ऊपर फैली हुई
जिसने पृथ्वी का कीच
कभी हुआ नहीं, पेड़ उगे
पेड़ सूखते गये
अमरबेल बनी रही
बना रहा राजा
बना रहा सेठ
बना रहा सत्ता का यूथपति
साम्यवाद आया, गया,
प्रजातन्त्र तान्त्रिक अनुष्ठान
जातियों में जुते हुए लोग

चिकने चुपड़े नफ़ीस दस-बीस
जाने क्या कहते हैं कि
सौ करोड़ लोग
बिखर जाते हैं रेत की भीत से

समय की यवनिका फटी
कुछ पीछे रंगमंच के
दिखा, फिर घोर अन्धकार
फिर कर्कश पुकार
फिर अन्तर्गुम्फित सत्य और अर्धसत्य
मौन में लिपटा मौन
कौन-सा दृश्य था जिसमें
देखा हो हमने समय को
अन्तिम बार किशोर की तरह
मुस्कराते हुए सलज्ज
गंगा में देखा हो जल
देखें हो आकाश में तारे
देखे हों दयालु लोग
देखे हो तृप्ति में पगुराते बछड़े... अन्तिम बार

कौन-सा था रंगमंच
कौन-सा नाटक था
कहो कुछ आता है याद भाई राम जी
इस सीलन भरी दीवालों से घिरी गली के
मुहाने पर
देखा तुमने, देखा...
एक पाव तरोई ख़रीदते हुए
चे ग्वेवारा को साठ या पैंसठ के पार
कटरा न हुआ
हुआ बोलिविया का घना वन
ये जड़ें नहीं है बेल के दरख़्त की
किसी के सर्पिल पैर हैं जड़ीभूत
तितलियों के पंखों की
ब्लेड-सी धार हवा को घायल करती
हवा से टपकता हुआ नीला रक्त

कौन-सी थी कौन-सी थी रात वह
जब हमें ख़बरें मिलने लगीं पहली बार
अख़बार आने के पहले
किन खपरैलों के नीचे चलते ट्रेडिल छापाख़ानों में
निर्माण होते देखा तुमने पहली बार
भाषा का, शब्दों का निर्माण
धातुओं से निर्मित होते हुए शब्द

काली रात के चमकते हॅंसते
चम्पा की कलियों-से दॉंत
रात उठा ले गयी हमें
हॅंसते-हॅंसते उठा ले गयी हमें रात
कितना भयानक और सुखद था
इस तरह उठा लिया जाना...

और फिर रातों के इश्क़ का जुनून
बाँध ही फट गया हो जैसे प्रेम का
स्त्रियों तुमसे मैं सचमुच
तब भी बात करना चाहता था
प्रेम के उस प्रलयपयोधि में भी
मुझे तुम्हारा ही था विश्वास
स्त्रियों तुम विश्वास करो मुझ पर
मैं दरअसल गेहूँ का खेत हूँ
और मनुष्य भी हूँ
और हल भी हूँ बैल भी
हल का फाल भी, मुलायम कॉंपती मिट्टी भी
मैं ही हूँ खेतों की नमी
स्त्रियों विश्वास करो अपने क्रोध पर
और देखो सनातन सत्य के
भग्नावशेष को
सहानुभूति से इसे ठीक-ठाक
करने की कोशिश करो
मैं तो इधर से कभी गुज़रा भी नहीं
इस देस के अन्न जल कहाँ मेरे भाग में
पृथ्वी दरअसल स्त्रियों का ही देश है
बाक़ी सब चलाचली पल दो पल
तभी न
हम एक-दूसरे से होकर गुज़र जाते हैं आरपार
और किसी को कुछ नहीं होता
किन्तु स्त्री या कविता या पृथ्वी
जिसे भी करती हैं स्पर्श
वही बन जाता है कमल सहस्त्रदल
वही बन जाता है निर्मल जल

इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में
तय पाया गया कि अब
प्रश्न नहीं किए जाएँगे
हर मुहल्ले गाँव घर-घर
प्रजातन्त्र जाएगा
सब लोग एक ही सत्य के होंगे फ़रमाबरदार
और सराय का मनीजर और उसकी मालकिन
जो कहेंगे वही होगा सत्य
वही होगा पथ का पाथेय, दुस्तर पथ
पृथ्वी हो जाएगी मरूस्थल बियाबान
और स्त्रियाँ बन्द कर दी जाएँगी
तम्बुओं में, किलों में, सुरंगों में,
कुओं में, क़बों में...