गौरेय्या और घर / उपेन्द्र कुमार
सुबह होते ही
फिर आ जाती है गौरेया
बज रही है घर की घंटी
अब न पूछना
बजा सकती है गौरेया घंटी
हम तुम बजा सकते हैं जब
तब गौरेया भी बजा सकती है, मेरे
घर की यानी,
कविता के घर की घंटी-
बजाती है रह-रह
हर मौसम में कविता के घर की घंटी
पिछले दिन कविता के घर बैठे-बैठे
मैंने ही टाला था-
कल आना और सच में ही
आ धमकी
कल यानी
कविता रचने के कल में
ओह भगवान
क्या करूँ
तुम्हारे घरों में
जब वह आती है
तो क्यों नहीं कहते हो तुम-
गौरेया रानी, शुभ है तुम्हारा आना
जहाँ मन करे, लगा लो घोंसला
इधर के ओसारे में
या इधर दालान में
पर कविता के घर में
गौरेया ने
जैसे ही
बिखेरे
टूटे कटे तिनके
नीड़ पूरा हो गया
हाँ पूरा
निकल कविता से बाहर
गौरेया ने फैलाए पंख
और एक बयानी-सी
स्मृति में छप गई
कविता की तरह