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फूल सा वो शहर / उपेन्द्र कुमार

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जब मैं लौटा
अपने पुराने शहर तो वह
स्वागत में खिल उठा
फूल-सा

पूछा इतने दिन कहाँ रहे
क्या करते रहे। बताया
यहाँ गया, वहाँ गया
ये देखा, वो किया
फलाँ-फलाँ को पटका
फलाँ-फलाँ से झटका
ये खरीदा, वो बेचा
ये जुटाया, वो सहेजा
बस बातें और बातें
और फिर नई बातें

सुनते-सुनते अकबकाकर
पूछा मुझे बीच में ही टोककर
मेरे लिए क्या लाए
अपनी नवअर्जित वाक्-पटुता दिखाई
दाँत चमकाए
आँखें नचाईं
बोला
मैं अपने आपको जो लाया हूँ
तुम्हारे लिए

यह सुनते ही अचकचाकर कहा मेरे पुराने शहर ने
तुम तो यहाँ थे ही।
फिर तुम्हारे जाने का
क्या हुआ मतलब?
और देखो न इस बीच
प्रतीक्षा से ऊब
मौसमों की सारी खुशबुएँ जेबों में भर
अनजान राहों पर चली गई
तुम्हारी पहचान
और पेड़ उदासियाँ लपेट
सो गए अपरिचय में।

इतना बना
मेरा पुराना शहर
मेरे स्वागत में झर गया
किसी फूल-सा।