भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उसे ही बनना है समर्थ / उपेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:17, 11 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उपेन्द्र कुमार |संग्रह=उदास पानी / उपेन्द्र कुम…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उपस्थिति की निरंतरता से
अभ्यस्त
हो जाते हैं
कि पहचानते हैं
हवा को
जब वह हो जाती है तुम
पानी को
जब वह सूख चुका होता है

टूटती है
आश्वस्ति हमारी
केवल
निरंतरता की
किसी अनुपस्थिति से

कविता भी
क्षण भर को
कौंधती है
जब वह लगी होती है
लगातार
बदलने की कोशिश में
और गुजर रही होती है
चीजों के आर-पार
जब कविता
दीखती नहीं है
तब किसी सूप में
फटक रही होती है
शब्दों के कचरे को
उड़ कर अर्थहीन
सार्थक बच रहते हैं
जटिल प्रक्रिया में
ताकि
बन सकें
समर्थ

समर्थ शब्द ही
उछाल सकते हैं
कुछ प्रश्न
मुस्कुराते हुए
संकेतों से

आखिर
शब्दों के साथ-साथ
प्रश्नों को भी बनना है
समर्थ
अर्थ के लिए