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गंधपूरित हैं हवाएँ / रमेश चंद्र पंत
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हाँ! दरख़्तों ने
नए फिर वस्त्र हैं पहने !
गंधपूरित
हैं हवाएँ
चाँदनी साँसें हुईं
मूक है
वाणी ह्रदय की
मौन में बातें हुईं
डालियों पर फिर
वहीं हैं पुष्प के गहने !
रंग की
जादूगरी हर ओर
है दिखने लगी
ख़ुशबुएँ
अनुबंध अपने
फिर नए लिखने लगीं
जड़ हों या चेतन
सभी के आज क्या कहने !