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छाँव नहीं पेड़ों की / रमेश चंद्र पंत
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चिड़िया है
एक, रोज़
सपनों में आती है !
बदहवास
लगती है
छाँव नहीं पेड़ों की
बढ़ती ही
रोज़ गई
दुनिया है मेड़ों की
रिश्तों के
घाव खोल
रोज़ ही दिखाती है !
हरियाली
मन की जो
ऊसर में ठूँठ हुई
सोने से
मढ़ी, आज
जंग लगी मूठ हुई
वैभव की
क्षरित कथा
मौन हो सुनाती है !
निर्जन की
यात्रा ही
हिस्से में आई है
आदिम संदर्भों की
मुखरित परछाईं है
आँसू की
एक नदी
रोज़ ही बहाती है !