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बसी हैं नागफनियाँ / रमेश चंद्र पंत

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अब कहाँ वे फूल
गमलों में
लगी हैं नागफनियाँ !

मन हुआ जंगल
सभी कुछ
बेतरह बिखरा
लग रहा चेहरा
नदी का
इन दिनों उतरा

ख़ुशबुओं की अब
कहाँ बातें
सजी हैं नागफनियाँ !

हैं बहुत उन्मन
हवाएँ
रोज़ ही मिलता
गाँव का पीपल
सिहरता
काँपता-हिलता

रंग के रिश्ते
हुए फीके
उगी हैं नागफनियाँ !

दंश की भाषा
कहीं सब
सीखते-बुनते
दूर तक तम के
चितेरे
शून्य हैं रचते

हाँ, कहीं गहरे
बहुत मन मेम
बसी हैं नागफनियाँ !