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दुख तो दुख है / रमेश चंद्र पंत

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दुःख तो
दुःख है
आएगा ही,
लेकिन दहना नहीं मुनासिब!
 
ऊपर से
जो सुखी लग रहे
भीतर से
वे भी हैं घायल,
फर्क कोण का
कोई इससे
तो कोई
उससे है घायल,

डूबे सब
आकंठ
भ्रमों में,
कुछ भी कहना नहीं मुनासिब!

नदिया
रेत हुई हैं भीतर
कहने को
निर्मल जल-धारा,
फैला है
निस्सीम गगन तक
पर कैसा
सागर? जल खारा,

सपने
दर्द, समय
सब सच हैं,
ऐसे ढहना नहीं मुनासिब!