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डूब गई मंगल-ध्वनि / रमेश चंद्र पंत

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डूब गई
मंगल-ध्वनि,
लगता सन्नाटों में ।
 
उत्सव
संबोधन सब
जहरीले दंश हुए,
घर की
दहलीजों के
रक्षक हैं कंस हुए,

डूब गया
अक्षत-मन,
सकरे-से पाटों में ।

उजले
संदर्भों की
वल्गाएँ छूट गईं,
लगता
संकल्पों की
समिधाएँ रूठ गईं,

डूब गए
ज्योति-कलश,
उथले-से घाटों में ।