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इतना हुआ बस / निर्मल शुक्ल
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रेत की भाषा
नहीं समझी लहर
इतना हुआ, बस !
बस प्रथाओं में रहो उलझे
यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ
इंगित करेंगी यह व्यथा है
सिलसिले
स्वीकार -अस्वीकार के
गिनते हुए ही
उंगलियाँ घिसतीं रहीं हैं
उम्र भर
इतना हुआ, बस !
जो क़ि अपना नाम तक भी
ले नहीं सकते सिरे से
लापता होते पते वे
ढूँढ़ते हैं सिरफिरे से
बेतुकी
उम्मीद के भी
हाथ फूले पाँव सूजे
बाँह रखकर कान पर
सोया शहर
इतना हुआ, बस !
दूध से उजले धुले सम्बन्ध
सब लिखते रहे हैं
किन्तु इस परिदृश्य में
वे बिंदु से दिखते रहे हैं
उद्दरण हैं
आज भी जो
रंग की संयोजना के
टूट कर दुहरा गई
उनकी कमर
इतना हुआ, बस !