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मन / कन्हैया लाल सेठिया
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फिरूं लेतो
अचपळै मन स्यूं
ओला
कोनी लेण दै
जक
ईं री झक
रवै
लाग्योड़ो लार
घालै फोड़ा
इण रै जायोड़ा विचार,
बरज दियो
कती बार ?
पण कोनी सुणण नै त्यार
म्हारी बात
ओ निलजो
लगा‘र घात
अडीकै दिन‘र रात
कणां चूकै फाळ
भागसी कतीक ताळ ?
जाणै ओ ढेटो
जीव रो सुभाव
कोनी सांवटै
आपरो बिछायड़ो जाळ।