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निशान / अरुण कमल



फिर शायद कभी कुछ न सोचूँ

काम में इतना बझ जाऊँगा

कि कभी याद भी शायद न आए


पर निशान तो रह ही जाएगा

जैसे पपीते के पूरे शरीर पर

खाँच


हर पत्ते के टूटने की--

हर क़दम की मोच


वैसे ही केवल निशान