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द्वेष के विष सर्प / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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प्रतिक्रिया की अग्नि से होकर प्रभावित
घर हमारे आज जलने लग गये,
मंजिलों केा पर करने के लिये हम
हर तरह का रास्ता चुनने लगे,
सत्य ने अब झूंठ के दरबार जाकर
टेक कर घुटनें झुकाया शाीश है,
बुझदिली को हर कदम पर रोशनी से
वीरता का मिल रहा आशीष है,
स्वार्थ की जलती शिखा में नेह के
मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे,
कह रही है अज पीठें आदमी की
घाव कब कितने कहां पर हैं लगे,
जख्म को जितना कुरेदा मलहमों ने
दर्द से उतना गये हैं वे ठगे,
ब्ेाहिचक अब आस्तीनों में हमारी
द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे,