भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेध गरजा। (प्रथम कविता का अंश) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:40, 20 फ़रवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कविता का एक अंश ही उपलब्ध है। शेष कविता आपके पास हो तो कृपया जोड़ दें या कविता कोश टीम को भेजें ।
मेध गरजा। (प्रथम कविता का अंश)
मेध गरजा।
धोर नभ में मेध गरजा।
गिरी बरसा।
प्रलय रव से गिरी बरसा।
तोड शैलोें के शिखर,
बहा कर धारें प्रखर,
ले हजारों घने धुंधले निर्झरों को,
कह रही हैं वह नदी से
’उठ अरी उठ’
कई जन्मों के लिए तू आज भरजा,
मेध गरजा