Last modified on 21 फ़रवरी 2011, at 04:14

हरी दूब का सपना (शीर्षक कविता) / नंद भारद्वाज

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:14, 21 फ़रवरी 2011 का अवतरण

कितने भाव-विभोर होकर पढ़ाया करते थे
                    मास्टर लज्जाराम -
कितनी आस्था से
डूब जाया करते थे किताबी दृश्यों में
एक अनाम सात्विक बोझ के नीचे
दबा रहता था उनका दैनिक संताप
और मासूम इच्छाओं पर हावी रहती थी
एक आदमक़द काली परछाई -

ब्लैक-बोर्ड पर अटके रहते थे
कुछ टूटे-फुटे शब्द -
धुंधले पड़ते रंगों के बीच
वे अक्सर याद किया करते थे
एक पूरे आकार का सपना !

बच्चे
मुँह बाए ताकते रहते
उनके अस्फुट शब्दों से
          बनते आकार
और सहम जाया करते थे
गड्ढों में धँसती आँखों से -

आँखें :
जिनमें भरा रहता था
अनूठा भावावेश
छिटक पड़ते थे
अधूरे आश्वासन
बरबस काँपते होठों से
 
और हँसते-हँसते
बेहद उदास हो जाया करते थे
                   अनायास
हर बार अधूरा छूट जाता था
हरी दूब का सपना !