भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किरदार खोलती है बयानात की महक / मयंक अवस्थी

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:13, 24 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मयंक अवस्थी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> किरदार खोलती …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किरदार खोलती है बयानात की महक
उसके खतों मे अब भी है जज़बात की महक

छन-छन के छनकता है तसव्वुर में वो ही तो
लायेगा मेरे दर पे जो बारात की महक

लादे नहीं हूँ पीठ पे ये बोझ बेसबब
रख्ते-सफ़र में अब भी है सौगात की महक

मग़रिब पुकारता है हरिक आफ़ताब को
पर्दे से झाँकती है जवाँ रात की महक

आँखों में रंज लब पे हँसी बेसबब नहीं
दिल की बिसात पर है किसी मात की महक

हर ज़ख्म रोशनी का सबब बन गया मुझे
अब दिल को खुशगवार है सदमात की महक

जो बात तुमसे कह न सका फोन पर मयंक
लाज़िम है शायरी में उसी बात की महक