Last modified on 25 फ़रवरी 2011, at 20:56

जीने की दरकार रहे / विनय मिश्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:56, 25 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनय मिश्र }} {{KKCatGhazal}} <poem> जीने की दरकार रहे गर दुनिय…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जीने की दरकार रहे
गर दुनिया में प्यार रहे

घर के सपने देती है
ये टूटी दीवार रहे

बाज़ारों में बिक जाना
उनका कारोबार रहे

सारा आलम पतझड़ का
अब किस जगह बहार रहे

बैठ लोग अलावों पर
आँसू बन अंगार रहे

पर्दे गिरते हैं मानो
कुछ ना आख़िरकार रहे