भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जैसे महका फूल लगे / विनय मिश्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:15, 25 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनय मिश्र }} {{KKCatGhazal}} <poem> जैसे महका फूल लगे । ग़म कि…)
जैसे महका फूल लगे ।
ग़म कितना माक़ूल लगे ।
एक खिलौना टूट गया,
सहमी-सहमी भूल लगे ।
कभी पढ़ाई ख़त्म न हो,
जीवन वो स्कूल लगे ।
उसके पीछे हो लूँ मैं,
वो इतना अनुकूल लगे ।
आज़ादी का मंज़र भी।
बढ़ता हुआ बबूल लगे ।