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बेगुनाही की सज़ा पाता रहा / विनय मिश्र

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बेगुनाही की सज़ा पाता रहा ।
ख़ुद से लड़ने में मज़ा आता रहा ।

रतजगों का सिलसिला है ज़िंदगी,
चाँद तो आता रहा, जाता रहा ।

उत्तरों का हाल क्या बतलाइए,
सिर्फ़ लिख-लिख प्रश्न दुहराता रहा ।

ख़ौफ़ है हर सू, सरासर झूठ है,
हौसला सच का मगर जाता रहा ।

अश्क होकर आँख से निकला मगर,
दर्द का दिल से सदा नाता रहा ।

क्या दिखाना आइने को आइना,
आइने में ख़ुद को समझाता रहा ।

अपना मन जो बुझ गया दहलीज़ पर,
किन हवाओं की ख़बर लाता रहा ।