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नावों में सुराख / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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नावों में सुराख
नावों मे सूराख नदी के
दिन अलबेले हैं
खडे़ राम जी सरयू के तट
निपट अकेले हैं
पार उतरने की जिद मन में
ठाठें मार रही
मौसम को जाने क्या सूझी
उल्टी हवा बही,
मंजिल को पाने में दिखते
बडे झमेले हैं
छोटी हो या बड़ी भंवर हो
सबके मुंह फैले,
चंचल चाल बदन कोमल
पर अंतरमन मैले
मांस नोचते घूम रहे
मगरों के हेले हैं
वे क्यों डरें विश्व में जिनका
बाज चुका डंका
पल में उतरे सिंधु जीत ली
रावण की लंका
सौ सौ वार समय के पहले
से ही झेले हैं