भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काली बिल्ली ढूंढ रही/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:21, 27 फ़रवरी 2011 का अवतरण
कली बिल्ली ढूँढ रही है, घर-घर आज शिकार ।
उसे नहीं इससे मतलब है कौन कहां लाचार ।
घिरे अंधंरे में भी इसकी
चमक रही हैं आँखे,
जैसे रातों में दिखती हैं
तपती हुई सलाखें,
धीरे-धीरे करती फिरती है नाखूनी वार ।
कोई दामन बचा न इससे, है कितनी ख़ूँखार ।
दीख रही इसकी आँखों में
संम्मोहन की ज्वाला,
जिसकी ओर निहारा, उसको
अपने वश कर डाला,
चुपके चुपके घूम रही है सरेआम बाज़ार ।
बैठी कभी तिजोरी घर में कभी सभा दरबार ।
घूम रही अपने पाँवों में
गूंगे घुँघरू बाँधे,
बड़े बड़ों क दामन अपने
पंजों के बल साधे,
बनते और बिगड़ते इसके दम पर कारोबार,
कितने हैं मज़बूत इरादे कितने हैं दमदार ।