याचक / प्रतिभा सक्सेना
वह प्रथम रात्रि,आ गई मिलन की बेला
लज्जित नयनों में स्वप्न सजा अलबेला
पद-चाप और आ गया प्रतीक्षित वह पल
अवगुंठन-से नीचे झुक गये पलक दल
आ बैठा कोई अति समीप शैया पर
तन सिहर उठा, मन जाने कैसा दूभर!
'स्वागत ,अपने इस गृह में आज तुम्हारा,
तुम स्वामिनि मेरा सब-कुछ प्रिये, तुम्हारा
पर मेरी एक कामना यदि पूरी हो,
अब नहीं बीच में कोई भी दूरी हो'
पलकें कुछ उठीं कि वह आनन विस्मित सा ,
ज्यों पूछ रहा रह गया अभी कुछ शक क्या
नेहाविल दृष्टि जमी जैसे उस मुख पर
कुछ देर शान्ति ,फिर मुखर हो गया वह स्वर,
' मैं नहीं चाहता अंश-अंश कर पाऊं,
तन-मन से पूरी एक बार अपनाऊं
इस भाँति आवरण धरे लाज का ,पट का ,
मैं दूर दूर ही रह जाऊँगा भटका!
आवरणहीन तुम मेरे सम्मुख पूरी
रह जाय न कोई मुझमें-तुममें दूरी!'
' सागर-सरि-सी मेरे निज में मिल जाओ,
आवरण ऊपरी अपने तुम्हीं हटाओ !'
वह चौंकी-सी मुख पर छा गई अरुणिमा ,
कैसी व्याकुल पुकार यह प्रिय की, ओ,माँ
'तुम प्रिये साध लो मन, जब तक हो संभव,
पश्चात् इसी के हो अनन्य का अनुभव!
सागर सा उफनाता मैं बाहु पसारे
जोहूँगा बाट तुम्हारी, संयम धारे!
जितने दिन चाहो ,बनी रहो प्रिय पाहुन
मैं रहूँ प्रतीक्षा-रत अनुदिन याचक बन'
कंपित तन-मन में उठी अनोखी तड़पन,
यह कैसा दुर्निवार दारुण , आमंत्रण!
सौंपी है सारी लाज, शील और सर्वस,
पर पार किस तरह पाऊं,यह निर्मम हठ
आया, फिर एक दिवस ,वह निशि ले आया
आवेग भरे हठ का ऋण गया चुकाया
सँध से ही केवल दीप जोत दमकाता,
बाहर तक आता अगरु -धूम लहराता!
छाया-प्रकाश की मोहक-सी संरचना,
ज्यों कुहुक जाल-सा पूर रहा हो अपना!
यों शयनागार बना अपना पूजा-घर
जाने क्यों बैठी वहाँ कपाट लगा कर!
पूजा में अर्पित सुरभित मृदु सुमनों सी
छाये लेती उड़-उड़ सुगंध अनदेखी
जी भरा आ रहा पति का हो,व्याकुल- सा!
उद्दाम प्रणय के भावों से उच्छल सा
'ओ, मेरे याचक, आज तुम्हें आमंत्रण!'
कुछ कंपित -सा वह स्वर करता आवाहन)
'अर्गलाहीन पट,स्वयं तुम्हीं खोलो अब,
अपने निजत्व में पा लो मेरा सर्वस!
आओ,प्रिय आओ ,खोलो द्वार पधारो
मेरा संपूर्ण समर्पित लो,स्वीकीरो'