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उलझे हुये हमारे मन हैं/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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उलझे हुये हमारे मन हैं
उलझे हुये हमारे मन है, उलझे हैं जज्बात,
पग पग उलझ गये हैं कितने, अब अपने हालात।
घूम रहे अपने हाथों मे
ले कर के तकदीर,
कभी बनाते कभी मिटाते
हैं अपनी तस्वीर,
खाली हाथ बांटते फिरते, दर दर पर सौगात,
पग पग उलझ गये हैं कितने, अब अपने हालात।
फेंक रहे औरों के घर में
हम पत्थर के फूल,
सोचा नहीं जरा भी मन में क्या इसमें है भूल,
विद्वेषों क ेलेख लिख रहे लिये कलम दावात,
पग पग उलझ गये हैं कितने,अब अपने हालात।
द्वारे पर हमने बोये हैं
पग पग बीज बबूल,
समझौतों की चादर नीचे
बिछे हुए हैं शूल,
बजा ईट से ईट रहे हैं आज बात बेबात,
पग पग उलझ गये हैं कितने,अब अपने हालात।