भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उलझे हुये हमारे मन हैं/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:24, 1 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान }} {{KKCatNavgeet}} <poem> उलझे हुय…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उलझे हुये हमारे मन हैं
उलझे हुये हमारे मन है, उलझे हैं जज्बात,
पग पग उलझ गये हैं कितने, अब अपने हालात।
घूम रहे अपने हाथों मे
ले कर के तकदीर,
कभी बनाते कभी मिटाते
हैं अपनी तस्वीर,
खाली हाथ बांटते फिरते, दर दर पर सौगात,
पग पग उलझ गये हैं कितने, अब अपने हालात।
 फेंक रहे औरों के घर में
हम पत्थर के फूल,
सोचा नहीं जरा भी मन में क्या इसमें है भूल,
विद्वेषों क ेलेख लिख रहे लिये कलम दावात,
पग पग उलझ गये हैं कितने,अब अपने हालात।
द्वारे पर हमने बोये हैं
पग पग बीज बबूल,
समझौतों की चादर नीचे
बिछे हुए हैं शूल,
बजा ईट से ईट रहे हैं आज बात बेबात,
 पग पग उलझ गये हैं कितने,अब अपने हालात।