Last modified on 19 मई 2008, at 01:31

ओह बेचारी कुबड़ी बुढ़िया / अरुण कमल


अचानक ही चल बसी

हमारी गली की कुबड़ी बुढ़िया,

अभी तो कल ही बात हुई थी

जब वह कोयला तोड़ रही थी

आज सुबह भी मैंने उसको

नल पर पानी भरते देखा

दिन भर कपड़ा फींचा, घर को धोया

मालिक के घर गई और बर्तन भी माँजा

मलकीनी को तेल लगाया

मालिक ने डाँटा भी शायद

घर आई फिर चूल्हा जोड़ा

और पतोहू से भी झगड़ी

बेटे से भी कहा-सुनी की

और अचानक बैठे-बैठे साँस रुक गई।


अभी तो चल सकती थी कुछ दिन बड़े मज़े से

ओह बेचारी कुबड़ी बुढ़िया !