भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाय दुर्दशा मानवता की/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:49, 6 मार्च 2011 का अवतरण
हाय दुर्दशा मानवता की
हाय दुर्दशा मानवता की
क्या से क्या रंग लायीं?
जिनके सीने पर सो बीती
शैशव की दोपहरी ,
जिनके कंधें पर चढ फूटी
तुतलाती स्वर लहरी,
उनको बोझ समझ बैठी
मन तनिक नहीं शरमायी ।
पले बढे जिनके हाथों से ,
खाकर नित्य निवाले।
जिनकी पूंजी से पढ लिखकर
हुये कमाने वाले,
उनका तन ढकने को कपडें
लेने से सकुचायी।
जिनके अरमानें के संग संग
पल कर बडी हुयी थी ,
बैंयॉ बैंयॉ चनते चलते
उठकर खडी हुयी थी,
उनके भूखे पेट रोटियां
देने से कतरायी।
हाय दुर्दशा मानवता की
क्या से क्या रंग लायीं?