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जन्मगाथा गीत की / श्याम नारायण मिश्र

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बाँस का जंगल जला,
फिर बाँसुरी ने
गीत गाए ।

तुम कहाँ हो
गीत की यह जन्मगाथा
मन सुनाए ।
 
      तीर्थ से लौटी नहीं है
      श्वास पश्चाताप की,
      दूर तक फैली हुई
      पगडंडियां है पाप की,

पोर गिन-गिन
उँगलियाँ
डाकिन चबाए ।

      अस्थियाँ इतिहास की
      कलश देहरी पर धरा है ।
      और आँगन में अधूरे
      क़त्ल का शोणित भरा है ।

कौन आँखों के दिए में
आग भर के
प्रेत को फिर से जगाए ।