भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विनयावली(राग विभास) / तुलसीदास

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:14, 8 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} <poem> '''विनयावली (राग विभास)''' (74) जा…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विनयावली (राग विभास)
(74)

जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।।
मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।।
भागे मद-मान चोर जानि जातुधान,
काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।