Last modified on 9 मार्च 2011, at 14:21

विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 2

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 9 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=व…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


(6)

जँाचिये गिरिजापति कासी।
जासु भवन अनिमादिक दासी।।
औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें।
सकत न देखि दीन कर जोरें।।
सुख-संपति, मति-सुगति, सुहाई।
सकल सुलभ संकर-सेवकाई।।
गये सरन आरतिकै लीन्हें।
निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हें।।
तुलसिदास -जातक जस गावैं।
बिमल भगति रघुपतिकी पावै।
(7)

क्कस न दीनपर द्रवहु उमाबर।
दारून बिपति हरन करूनाकर।।
बेद-पुरान कहत उदार हर।
हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर।।
कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज।
होइ प्रसन्न दिन्हेहु सिव पद निज।।
जो गति अगम महामुनि गावहिं।
तव पुर कीट पतंगहु पावहिं।।
देहु काम-रिपु!राम-चरन-रति।
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति।।