Last modified on 10 मार्च 2011, at 00:27

गर हिम्मत है तो बिस्मिल्लाह / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:27, 10 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ |संग्रह=असंकलित नज़्में / फ़ैज…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कैसे मुमकिन है यार मेरे
मजनूँ तो बनो लेकिन तुमसे
इक संग न रस्मो-राह करे
हो कोहकनी<ref>पहाड़ खोदना</ref> का दावा भी
सर फोड़ने की हिम्मत भी न हो
हर इक को बुलाओ मक़तल में
और आप वहाँ से भाग रहो
बेहतर तो यही है जान मेरी
जिस जा सर धड़ की बाज़ी हो
वो इश्क़ की हो या ज़ंग की हो
गर हिम्मत है तो बिस्मिल्लाह<ref>अल्लाह का नाम लेकर शुरू करो</ref>
वरना अपने आपे में रहो
लाज़िम तो नहीं है हर कोई
मंसूर बने फ़रहाद बने
अलबत्ता इतना लाज़िम है
सच जान के जो भी राह चुने
बस एक उसी का हो के रहे

शब्दार्थ
<references/>