दश्ते-ख़िज़ाँ<ref>पतझर का जंगल</ref> में जिस दम फैले
रुख़्सते-फ़स्ले-गुल<ref>बीतती हुई बहार</ref> की ख़ुशबू
सुभ के चश्मे पर जब पहुँचे
प्यास का मारा रात का आहू<ref>हिरन</ref>
यादों के ख़ाशाक<ref>कूड़ा-करकट</ref> में जागे
शौक़ के अंगारों का जादू
शायद पल-भर को लौट आए
उम्रे-गुज़िश्ता<ref>बीती हुई उम्र</ref>, वस्ले-मनो-तू<ref>मेरा-तुम्हारा मिलन</ref>
बेरूत, मई, 1982
शब्दार्थ
<references/>