भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान / गणेश पाण्डेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:49, 11 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गणेश पाण्डेय |संग्रह=अटा पड़ा था दुख का हाट / गणे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुंदर केश थे गुरु जी के
चौड़ा ललाट, आँखें भारी
लंबी नाक, रक्ताभ अधर
उस पर गज भर की जुबान।

गजब का प्रभामण्डल था
कद-काठी, चाल-ढाल
सब दुरुस्त ।

जो छिपकर देखा किसी दिन
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान ।