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ढाका से वापसी पर / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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हम केः ठहरे अजनबी इतनी मदारातों<ref>आवभगत</ref> के बाद
फिर बनेंगे आशना<ref>परिचित</ref> कितनी मुलाक़ातों के बाद
कब नज़र में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़<ref>प्रेम की पीड़ा की समाप्ति के क्षण</ref> के
थीं बहुत बे-मह्र<ref>निर्दयी</ref> सुब्हें मह्रबाँ रातों के बाद
दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल<ref>दिल की हार</ref> ने मोहलत<ref>अवकाश</ref> ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों<ref>प्रार्थना-गीत</ref> के बाद
उनसे जो कहने गए थे “फ़ैज़” जाँ सदक़ा<ref>प्राण न्यौछावर</ref> किए
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
शब्दार्थ
<references/>