Last modified on 16 मार्च 2011, at 12:06

कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 2

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:06, 16 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


(बाललीला)
 

कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।

कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं।
 
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।

अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन -मंदिरमें बिहरैं।4।
 

बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खेालनकी।

चपला चमकैं घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलनकी।।

घुँघरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी।

नेवछावरि प्रान करैं तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलनकी।5।


पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ।

लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ।

तुलसी अस बालक सों नहिं नेहु कहा जप जाग समाधि किएँ।

नर वे खर सूकर स्वान समान कहैा जगमें फलु कौन जिएँ।6।


सरजू बर तीरहिं तीर फिरैं रघुबीर सखा अरू बीर सबै।
 
धनुही कर तीर , निषंग कसें ििट पीत दुकूल नवीन फबै।

तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन दकीस सबै।

मति भारति पंगु भई जो निहारि बिचारि फिरी न पबै।7।