Last modified on 16 मार्च 2011, at 12:11

कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 4

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:11, 16 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

4

डिगति उर्वि अति गुर्वि सर्ब पब्बै समुद्र-सर।

ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।।

 दिग्गयंद लरखरत परत दसकंधु मुकख भर।

सुर -बिमान हिमभानु भानु संघटत परसपर।।

 चौंके बिरंचि संकर सहित, कोलु कमठु अहि कलमल्यौ।

ब्रह्मंड खंड कियो चंड धुनि जबहिं राम सिवधनु दलयौ। ।11।


लोचनाभिराम धनस्याम रामरूप सिसु,

सखी कहै सखीसों तूँ प्रेमपय पालि, री

बालक नृपालजूकें ख्याल कही पिनाकु तोर्यो,

मंडलीक-मंडली-प्रताप-दासु दालि री।ं

जनकको, सियाको, हमारो, तेरेा, तुलसीकेा,

सबको भावतो ह्वैहै, मैं जो कह्यो कालि, री।।

कौसिलाकी कोखिपर तोषि तन वारिये, री।

राय दशरत्थकी बलैया लीजै आलि री।12।


 दूब दधि रोचनु कनक थार भरि भरि

आरति सँवारि बर नारि चलीं गावतीं।

लीन्हें जयमाल करकंज सोहैं जानकीके

पहिरसवो राधोजूको सखियाँ सिखावतीं।।

तुलसी मुदित मन जनकनगर-जन

झाँकतीं झरोखं लागीं सोभा रानीं पावतीं।

मनहुँ चकोरी चारू बैठीं निज नीड

चंदकी किरिन पीवैं पलकौ न लावतीं।13।