संबल / रामधारी सिंह "दिनकर"
संबल
सोच रहा, कुछ गा न रहा मैं।
[१]
निज सागर को थाह रहा हूँ,
खोज गीत में राह रहा हूँ,
पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं।
[२]
वातायन शत खोल हृदय के,
कुछ निर्वाक खड़ा विस्मय से,
उठा द्वार-पट चकित झाँक अपनेपन को पहचान रहा मैं।
[३]
ग्रन्थि हृदय की खोल रहा हूँ,
उन्मन-सा कुछ बोल रहा हूँ,
मन का अलस खेल यह गुनगुन, सचमुच, गीत बना न रहा मैं।
[४]
देखी दृश्य-जगत की झाँकी,
अब आगे कितना है बाकी?
गहन शून्य में मग्न, अचेतन, कर अगीत का ध्यान रहा मैं।
[५]
चरण-चरण साधन का श्रम है,
गीत पथिक की शान्ति परम है,
ये मेरे संबल जीवन के, जग का मन बहला न रहा मैं।
[६]
एक निरीह पथिक निज मग का
मैं न सुयश-भिक्षुक इस जग का,
अपनी ही जागृति का स्वर यह, बन्धु, और कुछ गा न रहा मैं।
सोच रहा, समझा न रहा मैं।