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औरत के ख़िलाफ़ होते हुए / चंद्र रेखा ढडवाल

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पहाड़ पर से धकेलते
गहरी नी‍द में डुबोते
कड़ी धूप में कटी घास-सी सुखाते
अँधेरी ठण्डी रात में
पैर पकड़ती
सिर से पाँव तक
माफ़ीनामा हुई देह को धकेलते
आदमी की तस्वीर देखी
मैंने देखी हर कोण से
हर ओर से
अच्छी तरह
ज़्यादा रोशनी में
दिन के उजाले में भी
वह सिर्फ़ आदमी की नहीं लगी
इसलिए मैं औरत के ख़िलाफ़ होते हुए लिख रही हूँ
कि वह होती है
डुबोते हैं
जलाते हैं
धकियाते हैं
हर उस पत्थर का पैनापन होती है
जो उसकी ओर फेंका जाता है
हर उस तलवार की धार होती है
जो उसके लिए तराशी जाती है
ज़रा-ज़रा कर पनपने देती है
वही तो
उसके हौसले
छिपाते हुए उसके मुँह से फूटता कोढ़
सिर पर उग आते सींग
उसकी आतताई देह पालते हुए
विषैला अहम सहेजते हुए