भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास/ पृष्ठ 40

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:20, 17 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=द…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 390 से 400

सासु ससुर गुुरू मातु पितु प्रभु भयो चहै सब कोइ।
होनी दुजी ओर को सुजन सराहिअ सोइ।391।

सठ सहि साँसति पति लहत सुजन कलेस न कायँ।
गढ़ि गुढ़ि पाहन पूजिऐ गंडकि सिला सुभायँ।392।

बड़े बिबुध दरबार तें भमि भूप दरबार।
जापक पूजत पेखिअत सहत निरादर भार।393।

बिनु प्रपंच छल भीख भलि लहिअ न दिएँ कलेस।
बावन बलि सों छल कियो दियो उचित उपदेश।394।

 भलो भले सेां छल किएँ जनम कनौड़ो होइ।
श्रीपति सिर तुलसी लसति बलि बावन गति सोइ।395।

बिबुध काज बावन बलिहि छलो भलो जिय जानि।
प्रभुता तजि बस भे तदपि मन की गइ न गलानि।396।

 सरल बक्र गति पंच ग्रह चपरि न चितवत काहु।
तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडंबित राहु।397।

खल उपकार बिकार फल तुलसी जान जहान।
मेढुक मर्कट बनिक बक कथा सत्य उपखान।398।

तुलसी खल बानी मधुर सुनि समुझिअ हियँ हेरि।
राम राज बाधक भई मूढ़ मंथरा चेरि।399।

जोंक सूधि मन कुटिल गति खल बिपरीत बिचारू।
अनहित सोनित सोष सो सो हित सोषनहारू।400।