Last modified on 20 मार्च 2011, at 11:24

पाला मारे खेत / विजय किशोर मानव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:24, 20 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय किशोर मानव |संग्रह= / विजय किशोर मानव }} {{KKCatNavgeet…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पाला मारे खेत सुने थे
शोर अकालों के
लेकिन यहाँ काठ मारे से
शहर हो गए हैं

भरे जेठ की दरकी धरती
जैसे हैं चेहरे
अंधी फरियादों के
सुनते हैं बैठे बहरे
चर्चे अबतक बहुत सुने थे
इन्हीं उजालों के
आग लगी जिनसे, सब घर
खंडहर हो गए है

दीवारों के घेरे जीते
बूढ़े शेर हुए
भीतर लोग दहकते
बाहर से पालतू सुए
शायद हमने ढोर चुने थे
भरे पुआलों से
तभी शहर के शहर यहाँ
लाशघर हो गए हैं।