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संध्या की तस्कर घुसपैठें / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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साँझ हुई सुनसान क्षितिज पर
अस्तमान सूरज शरमाया !
कोलाहल से ऊबी महफ़िल
सूनेपन को पास बुलाती
सिर्फ़ चटकने की आवाज़ें
पत्तों का आभास दिलातीं
सुना-अनसुना हुआ सभी कुछ
सन्नाटों ने जो फ़रमाया !
मनमोहक सपने आ-आकर
चुपके-से धूमिल हो जाएँ
सुखद हवाएँ मन को छूकर
एक चुभन मन में बो जाएँ
जाने-पहचाने रिश्तों ने
कभी-कभी ऐसा भरमाया !
अनचाहे-से लोग वृथा ही
पास अचानक ज्यों आ बैठें
छलने लगीं अकेले दिन को
संध्या की तस्कर घुसपैठें
दंश उभरने लगे हृदय पर
यादों का मौसम गरमाया !