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शाख़ अरमानों की हरी ही नहीं / ज़िया फतेहाबादी

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शाख़ अरमानों की हरी ही नहीं ।
आँसुओं की झड़ी लगी ही नहीं ।

साया-ए आफ़्ताब में ऐ रिंद,
तीरगी भी है रोशनी ही नहीं ।

क़ैद-ए हस्ती से किस तरह छूटें,
राह कोई फ़रार की ही नहीं ।

मेरे शे’रों में ज़िंदगी की है,
वो हक़ीक़त जो शायरी ही नहीं ।

वो हुनर आदमी की फ़ितरत है,
जो हुनर ऐब से बरी ही नहीं ।

धरम आदमगरी सिखाता है,
सिर्फ़ तक़सीम-ए आदमी ही नहीं ।

गिनता हूँ दिल की धडकनें कि अब,
तू ने आवाज़ मुझ को दी ही नहीं ।

उसे इरफ़ान-ए ज़ुहद क्या हो ’ज़िया’,
मस्त आँखों से जिस ने पी ही नहीं ।