भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह कैसा वसंत आया है / आलोक श्रीवास्तव-२

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:49, 28 मार्च 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
एक

वसंत आया है और मैं उदास हूं

कैसे कहूं कि उदास हैं कोपलें
हवा, घास, धरती और वन उदास हैं
कैसे कहूं ?

दो

तुम्हारे बिना यह कैसा वसंत आया है?

नदी का जल
एक उदास लय की याद दिलाता
बहा जा रहा है
बांसुरी की एक टूटी टेक हिचकियां ले रही है
फूलों में यह कैसा रंग है ?
ये कैसे शब्द लिख रहा हूं मैं ?

तीन

इस वसंत भी तुम्हें प्यार नहीं कर पाउंगा

सूरज की आंच फूलों को गरमायेगी
उमग भरी डालों पर तैरेगा ऋतु का गान

वियोग की ऋतु का तार बजेगा मुझमें

न तुम्हारे केश छू पाउंगा
न आंखों में उतरती धूप देख सकूंगा
हवा में तुम्हारे वस्त्रों का
मंद उड़ना भी न होगा

यह वसंत भी
फूल, नदी, वन, धरती डालों पर से बीत जायेगा !

चार

इसे तो प्यार की ऋतु होना था
डूब जाना था हमें
इस मौसम के रस, रूप, गंध में
आवाज देनी थी एक-दूसरे को
हवा में गूंजनी थी हमारी सांसें
तट बंधी डोंगियों में
उमड़ आना था फूलों का ज्वार
तुम्हें उत्फुल्ल हंसना था
सरि-तट के निचाट एकांत में
सांझ तारे की साक्षी में
मुझे थाम लेनी थी
तुम्हारी हथेलियां

पर सरि तट पर आया यह सूना वसंत भी
लो हुआ ओझल

पांच

वसंत का चांद उगा है

पता नहीं फूलों पर अमृत झर रहा है या
सैकत-तट पर चांदनी

जाने किस अतीत में खोयीं
किस रास्ते किस गांव बस्ती की तुम हुई बाशिंदा

वक़्त के साथ लय होना था वियोग
किसी भविष्य में
किसी और शहर
नाम-रूप में तुमको फिर मिलना था
फिर शुरु होनी थी
धरती की सबसे सुंदर गाथा

वसंत के इस निर्जन चांद को उगना तो था आज भी
पर इस तरह स्तब्ध, शोकमय तो नहीं

पता नहीं फूलों पर अमृत झर रहा है या
सैकत-तट पर चांदनी ।